sahitya
शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
जीवन का नजरिया
मंगलवार, 12 मई 2020
हमारा बचपन
*विचारणीय विषय:*
*हमारा बचपन या आधुनिकतावाद *
कभी नेनुआ टाटी पर चढ़कर रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पर चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी। कभी *बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहडौड़ी सावन भादों की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी।*
वो दिन थे जब सब्जी पर खर्चे का पता तक नहीं चलता था। *देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी।* तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था। ये *सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं।* लोहे की कढ़ाई में किसी के घर रसेदार सब्जी पके, तो गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी। *संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था।* रातें बड़ी होती थीं। दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो। किसान लोगों में कर्ज का फैशन नहीं था। फिर बच्चे बड़े होने लगे.. बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं। *बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी इत्र लगाने लगे*। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे। किसान क्रेडिट कार्ड...... ....डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया। इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी।
*बीच में मुछमुँड़े इंजीनियरों का दौर आया।* दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे। बेटी गाँव से रुखसत हुई.. पापा का *कान पेरने वाला रेडियो* साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था। अब *आँगन में नेनुआ का बिया छीटकर मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी*, और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं।
बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गई। सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था। जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था। दही मट्ठा का भरमार था। सबका काम चलता था। मटर, गन्ना, गुड सबके लिए इफरात रहता था।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था।
आज की छुद्र मानसिकता दूर दूर तक नहीं दिखाई देती थी।
हाय रे ऊँची शिक्षा कहाँ तक ले आई।
*आज हर आदमी एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है।*
विचारणीय है कि क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा भर है!!
गुरुवार, 7 दिसंबर 2017
चेटिंग से चीटिंग तक -----भारतीय नारी
गुरुवार, 15 सितंबर 2016
लबो पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती
माँ एक अनुभूति है ,विश्वास है,अपना सा रिश्ता है |माँ एक अक्षर नहीं है | ताकत है|जिसका एहसास सिर्फ माँ बनकर ही लगाया जा सकता है|
माँ बनने के बाद माँ की दुनिया ही बदल जाती है ,फिर उसकी आँखे सोती कम है सपने ज्यादा देखती है |माँ बेटी का अनोखा रिश्ता होता है |उसका पहला डगमगाता कदम ,पहली शरारत ,पहली किताब ,पहला खिलौना ,माँ बच्चे के लिए कितना जुड़ जाती है |कितना बट जाती है ,बिटिया को सजा देकर कितना रोती है और माँ कहते ही कितना पिघल जाती है ,कोई अंदाज नहीं लगा सकता |माँ .........................माँ है |
रविवार, 22 मई 2016
एक व्यक्ति लगभग रोगी ही जन्म लेता है जबकि दूसरा व्यक्ति स्वस्थ व निरोगी जीवन यापन करता है | इसका क्या कारण है ? इसका कारण कर्म सिद्धांत ही है | जो हम बोते है , वही काटते हैं हमारा जीवन हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है | इसीलिए यह स्वाभाविक है कि हम भविष्य में जो कुछ भी होंगे , वह हमारे वर्तमान कर्मों के द्वारा ही निश्चित होगा | इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य न केवल अपने चरित्र का निर्माता स्वयं है अपितु अपने भाग्य का भी स्वयं निर्माता है |
अपने व्यक्तित्व का मानसिक चित्र बनाने में हम जितने स्पष्ट एवम निश्चयी होंगे ,उतने ही उन्नत व्यक्तित्व का निर्माण करने में सफल होंगे |
रविवार, 1 मई 2016
एक काम के तीन नजरिये
यहाँ काम एक हो रहा है पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं, तीन अलग अलग मनोभावों को व्यक्त कर रही है | मनुष्य तीन तरह के होते हैं , कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सारी ज़िन्दगी केवल पत्थर तोड़ने का कार्य करते हैं | कुछ लोग हैं जो केवल पेट पाल कर रह जाते हैं |लेकिन वे लोग विरले होते हैं जो अपने जीवन को मंदिर बना लेते हैं | जिस मनुष्य के भीतर क्रोध भरा होगा , गुस्सा भरा होगा उसका जवाब यही होगा की पत्थर तोड़ रहा हूँ | ऐसे लोग अपने जीवन में कुछ हासिल नही कर पाते| जो केवल गुज़ारे का साधन बना के चलते हैं वे अपने जीवन को समग्रता से पहचानते नही | लेकिन तीसरे लोग बड़े विरल पर विलक्षण होते हैं | ये वे होते हैं जो अपने जीवन के प्रति अहोभाव से भरे होते हैं | इनका दृष्टिकोण अपने जीवन के प्रति बड़ा सकारात्मक होता है | वे सच में अपने जीवन को एक मंदिर बना लेते हैं |