शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

जीवन का नजरिया

एक स्थान पर मंदिर का निर्माण चल रहा था, सैकड़ों मजदूर निर्माण कार्य में जुटे थे, पत्थर तराश रहे थे ।इसी बीच किसी संत का गुजरना हुआ। संत ने काम करते हुए मजदूर से पूछा भाई,क्या कर रहे हो? मजदूर ने कहा -दिखता नहीं ,अंधे हो क्या? पत्थर तोड रहा हूं । संत मुस्करा कर आगे बढे । कुछ दूरी पर दूसरे मजदूर से वही प्रश्न पूछा ।उसने जवाब दिया,_ पेट पाल रहा हूं । उसके स्वरों में बेबसी और लाचारी झलक रही थी ।एक मजदूर गीत गुनगुना रहा था उससे पूछा भाई तुम क्या कर रहे हो । मजदूर के होंठों पर मुस्कान आती, बोला मंदिर बना रहा हूं । भगवान यहां बैठेंगे । यहां एक काम हो रहा है पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं, तीन अलग-अलग मनोभावों को व्यक्त कर रही हैं । पत्थर तोड़ने का काम करके जीवन को गुजारे का साधन बनाकर चलते है। बस यूं ही लाचारी में जीवन बिता देते हैं।वे जीवन का अभिनंदन नहीं करते ।वे बड़े विरले और विलक्षण होते हैं जो अपने जीवन के प्रति अहोभाव से भरे होते हैं।जो अपनी जिंदगी को सकारात्मकता से लेते हैं ।वे सच में अपने जीवन को एक मंदिर बना लेते हैं।

मंगलवार, 12 मई 2020

हमारा बचपन

*विचारणीय विषय:*

*हमारा बचपन या आधुनिकतावाद *


कभी नेनुआ टाटी पर चढ़कर रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पर चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी। कभी *बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहडौड़ी सावन भादों की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी‌।*


वो दिन थे जब सब्जी पर खर्चे का पता तक नहीं चलता था। *देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी।* तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था। ये *सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं।* लोहे की कढ़ाई में किसी के घर रसेदार सब्जी पके, तो गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी। *संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था।* रातें बड़ी होती थीं। दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो। किसान लोगों में कर्ज का फैशन नहीं था। फिर बच्चे बड़े होने लगे.. बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं। *बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी इत्र लगाने लगे*। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे। किसान क्रेडिट कार्ड...... ....डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया। इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी। 


*बीच में  मुछमुँड़े इंजीनियरों का दौर आया।* दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे। बेटी गाँव से रुखसत हुई.. पापा का *कान पेरने वाला रेडियो* साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था। अब *आँगन में नेनुआ का बिया छीटकर मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी*, और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं।


बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गई। सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था। जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था। दही मट्ठा का भरमार था। सबका काम चलता था। मटर,  गन्ना, गुड सबके लिए इफरात रहता था।

सबसे बड़ी बात तो यह थी कि आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था। 


आज की छुद्र मानसिकता दूर दूर तक नहीं दिखाई देती थी। 


हाय रे ऊँची शिक्षा कहाँ तक ले आई।


*आज हर आदमी एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है।*


विचारणीय है कि क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा भर है!!

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

चेटिंग से चीटिंग तक -----भारतीय नारी



चेटिंग से चीटिंग तक -----भारतीय नारी

भारतीय नारी का एक ही पति होता है |उसका पति ही उसके लिए सब कुछ होता है |पति ही मित्र है ,पति ही प्राणनाथ है ,पति ही रक्षक है और पति ही परमेश्वर है ,ऐसी भारतीय नारी की पवित्र मानसिकता  रहती है |इसी कारण से नारी को भारत में देवी का रूप माना जाता है |जब कन्या एक घर से दुसरे घर में विवाहित होकर जाती है तो वह साक्षात् लक्ष्मी का रूप होती है |पुत्र को कुलदीपक कहा जाता है |वह एक कुल का ही दीपक है किन्तु पुत्री उभय कुल वर्धिनी कही जाती है |वह पीहर और ससुराल दोनों पक्षों को बढ़ाने वाली होती है |इसी कारण नारी का स्थान सर्वोच्च है |इसीलिए भारतीय संस्कृति में कहा गया है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहाँ नारी की पूजा की जाती है वहां देवता वास करते है |
आज भी प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है कि जिस घर में सुशिक्षित ,उदार विचार वाली सज्जन ,सुशील स्त्री रहती है उस घर में, परिवार में सुख शांति बनी रहती है |
भले ही आज की शिक्षा कैसे भी हो,भले ही आज का वातावरण कैसा भी हो ,दुनिया में कितना ही ग्लेमर क्यों न हो ,स्त्री पुरुषो की होड़ में आगे हो या न हो पर इतना निश्चित है जो बेटी ,बहु शिक्षित और सुशील है वह आज भी सुखी है |अनेक अभावो और प्रतिकूल माहौल में भी वह स्त्री उन स्त्रियों से भी ज्यादा निश्चिन्त .निरोग और सुखी रहती है जो स्त्रियाँ कुल की मान मर्यादा को किनारे रखकर अपनी संस्कृति और सभ्यता का उल्लंघन कर जीवन जीती है |

नारी पहले भी देवी थी ,आज भी देवी है ,
यदि वह अपने आप में महसूस करे तो |

यार यानि जाली दोस्त |इन दोस्तों और अनचाहे सम्बन्धी को मित्र बनाने की होड़ में नारी अपने देवत्व को स्वयं नष्ट कर रही है |आज पढने वाली लडकियो में यही स्पर्धा है कि किसके कितने मित्र है ?किसके कितने चाहने वाले है|यह स्पर्धा ही नारी के शील को नष्ट करने वाली है|जिस यौवन की पहले नारी रक्षा करती थी आज वह उस यौवन के नशे में अपना शील बेचने के लिए मौके तलाशती है |
पहले नारी के लिए सम्मान सूचक शब्द जैसे पतिव्रता,स्त्री ,महिला, बेटी, पुत्री,लक्ष्मी,सरस्वती,लाजवंती,कुलवधू प्रयोग किये जाते थे|आज नारी के लिए डार्लिंग,काल गर्ल ,सेक्सी जैसे शब्द का प्रयोग  होता है|मजे की बात यह है कि इन शब्दों को सुनकर नारी को अपमान महसूस नहीं होता अपितु खुश होती है|अपने को मोर्डन और ही स्टेटस का समझती है|यह अज्ञानता ही महाविनाश का कारण है|
इस अज्ञानता का सबसे बड़ा कारण है-फेसबुक |फेसबुक का यह दावा है कि वह नए सम्बन्ध बनाता है और लोगो को आपस में जोड़ता है, एकदम गलत और हास्यास्पद है| नित नयी घटनाओ से यह सच्चाई सामने आ रही हैकि फेसबुक से जो सम्बन्ध बनाये जाते है,वे झूठ से शुरु होते है और अलगाव पर समाप्त हो जाते है |इस अकाउंट को रखने वाला यूज़र जब अपनी फेसबुक प्रोफाइल  बनता है तो एकदम गलत डाटा फीड करता है|
४० साल का आदमी अपने को २२ साल का लिखता है|बेरोजगार आदमी नामी कंपनी में जब दिखाता है,आदि आदि |
पहले चेटिंग फिर डेटिंग फिर सेटिंग और अंत में चीटिंग यही इस फेसबुक की असलियत है|
क्षणिक आनंद और घटिया मनोरंजन के लिए इससे जुड़ने वाली सभी अपना अहित करने को मजबूर हो रही है जैसे एक मक्खी यह जानकर भी कि उसके पैर चाशनी में फसेंगे,वह उस सीरे में गिर जाती है |इस नादानी से कौन  बचाए? कौन समझाए?
नारी कहती है मै पुरुषो से कम नहीं हूँ|उसकी यह सोच ही गलत है|यह सोच ही भावनात्मक विद्रोह का रूप लेकर उसे इन्टरनेट , मोबाइल फेसबुक और नशे की चीजो से जोड़कर उसके जीवन को तबाह कर रही है|वस्तुतः प्रत्येक नारी को यह सोचना चाहिए कि मै दोनों कुल को प्रकाशमान करने वाली जन्मजात मशाल हूँ|जो प्रेम,करुणा,सहृदयता,शालीनता,लज्जा जैसे भावनात्मक गुण नारी में है वे गुण पुरुषों में नहीं आ सकते फिर वह पुरुष से पीछे रह कैसे सकती है,बर्शते कि वह अपनी गुणवत्ता बनाये रखे |
शिक्षा की स्वतंत्रता ने इतना स्वच्छंद बना दिया कि अब पाप,पाप जैसा नहीं लगता|इस सन्दर्भ में प्रत्येक बेटी,बहू का कर्तव्य है कि वह अपना मूल्यांकन स्वयं करे |
                                  

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

माँ
लबो पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती
माँ एक अनुभूति है ,विश्वास है,अपना सा रिश्ता है |माँ एक अक्षर नहीं है | ताकत है|जिसका एहसास सिर्फ माँ बनकर ही लगाया जा सकता है|
माँ बनने के बाद माँ की दुनिया ही बदल जाती है ,फिर उसकी आँखे सोती कम है सपने ज्यादा देखती है |माँ बेटी का अनोखा रिश्ता होता है |उसका पहला डगमगाता कदम ,पहली शरारत ,पहली किताब ,पहला खिलौना ,माँ बच्चे के लिए कितना जुड़ जाती है |कितना बट जाती है ,बिटिया को सजा देकर कितना रोती है और माँ कहते ही कितना पिघल जाती है ,कोई अंदाज नहीं लगा सकता |माँ .........................माँ है |

रविवार, 22 मई 2016

मनुष्य न केवल अपने चरित्र का निर्माता स्वयं है ,अपितु अपने भाग्य का निर्माता भी स्वयं है |जब हम महान चरित्र वाले व्यक्तियो की तुलना साधारण लोगों से करते है तब  असंख्य भिन्नताए  पाते है | हर व्यक्ति के व्यक्ति के चरित्र में एक दुसरे से अगणित भिन्नता है  |इसकी व्याख्या हम कैसे करे ?हम देखते है एक बच्चा जन्म से गूंगा बहरा है ?कैसे जब कई दूसरा अति संपन्न परिवार में  जन्म लेता है  ,जबकि वही दूसरा बच्चा कभी कभी अपनी माँ के दुध के लिए भी तड़प कर भूखों मर जाता है? कैसे हम व्याख्या करें , जब एक व्यक्ति दिन रात संघर्ष करके बड़ी कठनाई  से  दो समय का भोजन प्राप्त करता है, कभी कभी तो उसे दो समय का भोजन भी नही मिलता जबकि दूसरा व्यक्ति अनेक सुस्वाद भोजन सामग्री पर्याप्त मात्र में खाता है - मानो वह भोजन के ढेरों पर लोटता रहता है और यह समझ नही पाता कि इतने अधिक अतिरित भोजन सामग्री का क्या करूँ ?
              एक व्यक्ति लगभग रोगी ही जन्म लेता है जबकि दूसरा व्यक्ति स्वस्थ व निरोगी जीवन यापन करता है | इसका क्या कारण है ? इसका कारण कर्म  सिद्धांत ही है | जो हम बोते है , वही काटते हैं हमारा जीवन हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है | इसीलिए यह स्वाभाविक है कि हम भविष्य में जो कुछ भी होंगे , वह हमारे वर्तमान कर्मों के द्वारा ही निश्चित होगा | इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य न केवल अपने चरित्र का निर्माता स्वयं है अपितु अपने भाग्य का भी स्वयं निर्माता है |
आइये,हम शांत होकर बैठे एवम् स्वयं की एक छवि उकेरने का प्रयास करे |स्वयं से पूछे हम किस तरह के व्यक्ति होना चाहते है ?हम उन्ही अद्भुत गुणों एवं शक्तियों की कल्पना करे, जिन्हें अपने पूर्ण विकसित व्यक्तित्व में देखना चाहते है |हम अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का एक ऐसा स्पष्ट चित्र बनाने की कोशिस करे ,जिसमे सभी उन्नत एवम उत्क्रिस्ठ गुणों की पूर्ण अभिव्यक्ति होती हो|
अपने व्यक्तित्व का मानसिक चित्र बनाने में हम जितने स्पष्ट एवम निश्चयी होंगे ,उतने ही उन्नत व्यक्तित्व का निर्माण करने में सफल होंगे |

रविवार, 1 मई 2016

एक काम के तीन नजरिये

एक स्थान पर मंदिर का निर्माण चल रहा था सैंकड़ो मजदूर निर्माण कार्य में जुटे थे .पत्थर तराश रहे थे |इसी बीच किसी संत का उधर से गुजरना हुआ |संत ने काम करते हुए एक मजदूर  से पूछा कि भाई .क्या कर रहे हो ?उस मजदूर  ने बेरुखी से घूरते हुए संत को जवाब दिया ,दिखता नहीं ,अंधे हो क्या ? पत्थर तोड़ रहा हूँ |संत मुस्कुराकर आगे बढ़ गए |कुछ दुरीं पर दूसरा मजदूर भी यही काम कर रहा था | वे उसके नज़दीक पहुंचे और पहुँच कर उससे भी वही प्रश्न पूछा कि, भाई क्या कर रहे हो | उसने जवाब दिया ,पेट पाल रहा हूँ |उसके स्वरों में बेबसी और लाचारी झलक रही थी | संत मुस्कुराकर उठे थोडा आगे बढे, कुछ दुरी पर एक तीसरा मजदूर भी वही काम कर रहा था जो पत्थर तोड़ते तोड़ते मुह  से कुछ गीत भी गुनगुना रहा था | संत के प्रश्न दोहराने पर मजदूर के होठों में एक मुस्कान आई , बोला मंदिर बना रहा हूँ | भगवान् यहाँ बैठेंगे |
               यहाँ काम एक हो रहा है पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं, तीन अलग अलग मनोभावों को व्यक्त कर रही है | मनुष्य तीन तरह के होते हैं , कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सारी ज़िन्दगी केवल पत्थर तोड़ने का कार्य करते हैं | कुछ लोग हैं जो केवल पेट पाल कर रह जाते हैं |लेकिन वे लोग विरले होते हैं जो अपने जीवन को मंदिर बना लेते हैं | जिस मनुष्य के भीतर क्रोध भरा होगा , गुस्सा  भरा होगा उसका जवाब यही होगा की पत्थर तोड़ रहा हूँ | ऐसे लोग अपने जीवन में कुछ हासिल नही कर पाते| जो केवल गुज़ारे का साधन बना के चलते हैं वे अपने जीवन को समग्रता से पहचानते नही | लेकिन तीसरे लोग बड़े विरल पर विलक्षण होते हैं | ये वे होते हैं जो अपने जीवन के प्रति अहोभाव से भरे होते हैं | इनका दृष्टिकोण अपने जीवन के प्रति बड़ा सकारात्मक होता है | वे सच में अपने जीवन को एक मंदिर बना लेते हैं |