रविवार, 1 मई 2016

एक काम के तीन नजरिये

एक स्थान पर मंदिर का निर्माण चल रहा था सैंकड़ो मजदूर निर्माण कार्य में जुटे थे .पत्थर तराश रहे थे |इसी बीच किसी संत का उधर से गुजरना हुआ |संत ने काम करते हुए एक मजदूर  से पूछा कि भाई .क्या कर रहे हो ?उस मजदूर  ने बेरुखी से घूरते हुए संत को जवाब दिया ,दिखता नहीं ,अंधे हो क्या ? पत्थर तोड़ रहा हूँ |संत मुस्कुराकर आगे बढ़ गए |कुछ दुरीं पर दूसरा मजदूर भी यही काम कर रहा था | वे उसके नज़दीक पहुंचे और पहुँच कर उससे भी वही प्रश्न पूछा कि, भाई क्या कर रहे हो | उसने जवाब दिया ,पेट पाल रहा हूँ |उसके स्वरों में बेबसी और लाचारी झलक रही थी | संत मुस्कुराकर उठे थोडा आगे बढे, कुछ दुरी पर एक तीसरा मजदूर भी वही काम कर रहा था जो पत्थर तोड़ते तोड़ते मुह  से कुछ गीत भी गुनगुना रहा था | संत के प्रश्न दोहराने पर मजदूर के होठों में एक मुस्कान आई , बोला मंदिर बना रहा हूँ | भगवान् यहाँ बैठेंगे |
               यहाँ काम एक हो रहा है पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं, तीन अलग अलग मनोभावों को व्यक्त कर रही है | मनुष्य तीन तरह के होते हैं , कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सारी ज़िन्दगी केवल पत्थर तोड़ने का कार्य करते हैं | कुछ लोग हैं जो केवल पेट पाल कर रह जाते हैं |लेकिन वे लोग विरले होते हैं जो अपने जीवन को मंदिर बना लेते हैं | जिस मनुष्य के भीतर क्रोध भरा होगा , गुस्सा  भरा होगा उसका जवाब यही होगा की पत्थर तोड़ रहा हूँ | ऐसे लोग अपने जीवन में कुछ हासिल नही कर पाते| जो केवल गुज़ारे का साधन बना के चलते हैं वे अपने जीवन को समग्रता से पहचानते नही | लेकिन तीसरे लोग बड़े विरल पर विलक्षण होते हैं | ये वे होते हैं जो अपने जीवन के प्रति अहोभाव से भरे होते हैं | इनका दृष्टिकोण अपने जीवन के प्रति बड़ा सकारात्मक होता है | वे सच में अपने जीवन को एक मंदिर बना लेते हैं |

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