रविवार, 22 मई 2016

मनुष्य न केवल अपने चरित्र का निर्माता स्वयं है ,अपितु अपने भाग्य का निर्माता भी स्वयं है |जब हम महान चरित्र वाले व्यक्तियो की तुलना साधारण लोगों से करते है तब  असंख्य भिन्नताए  पाते है | हर व्यक्ति के व्यक्ति के चरित्र में एक दुसरे से अगणित भिन्नता है  |इसकी व्याख्या हम कैसे करे ?हम देखते है एक बच्चा जन्म से गूंगा बहरा है ?कैसे जब कई दूसरा अति संपन्न परिवार में  जन्म लेता है  ,जबकि वही दूसरा बच्चा कभी कभी अपनी माँ के दुध के लिए भी तड़प कर भूखों मर जाता है? कैसे हम व्याख्या करें , जब एक व्यक्ति दिन रात संघर्ष करके बड़ी कठनाई  से  दो समय का भोजन प्राप्त करता है, कभी कभी तो उसे दो समय का भोजन भी नही मिलता जबकि दूसरा व्यक्ति अनेक सुस्वाद भोजन सामग्री पर्याप्त मात्र में खाता है - मानो वह भोजन के ढेरों पर लोटता रहता है और यह समझ नही पाता कि इतने अधिक अतिरित भोजन सामग्री का क्या करूँ ?
              एक व्यक्ति लगभग रोगी ही जन्म लेता है जबकि दूसरा व्यक्ति स्वस्थ व निरोगी जीवन यापन करता है | इसका क्या कारण है ? इसका कारण कर्म  सिद्धांत ही है | जो हम बोते है , वही काटते हैं हमारा जीवन हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है | इसीलिए यह स्वाभाविक है कि हम भविष्य में जो कुछ भी होंगे , वह हमारे वर्तमान कर्मों के द्वारा ही निश्चित होगा | इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य न केवल अपने चरित्र का निर्माता स्वयं है अपितु अपने भाग्य का भी स्वयं निर्माता है |
आइये,हम शांत होकर बैठे एवम् स्वयं की एक छवि उकेरने का प्रयास करे |स्वयं से पूछे हम किस तरह के व्यक्ति होना चाहते है ?हम उन्ही अद्भुत गुणों एवं शक्तियों की कल्पना करे, जिन्हें अपने पूर्ण विकसित व्यक्तित्व में देखना चाहते है |हम अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का एक ऐसा स्पष्ट चित्र बनाने की कोशिस करे ,जिसमे सभी उन्नत एवम उत्क्रिस्ठ गुणों की पूर्ण अभिव्यक्ति होती हो|
अपने व्यक्तित्व का मानसिक चित्र बनाने में हम जितने स्पष्ट एवम निश्चयी होंगे ,उतने ही उन्नत व्यक्तित्व का निर्माण करने में सफल होंगे |

रविवार, 1 मई 2016

एक काम के तीन नजरिये

एक स्थान पर मंदिर का निर्माण चल रहा था सैंकड़ो मजदूर निर्माण कार्य में जुटे थे .पत्थर तराश रहे थे |इसी बीच किसी संत का उधर से गुजरना हुआ |संत ने काम करते हुए एक मजदूर  से पूछा कि भाई .क्या कर रहे हो ?उस मजदूर  ने बेरुखी से घूरते हुए संत को जवाब दिया ,दिखता नहीं ,अंधे हो क्या ? पत्थर तोड़ रहा हूँ |संत मुस्कुराकर आगे बढ़ गए |कुछ दुरीं पर दूसरा मजदूर भी यही काम कर रहा था | वे उसके नज़दीक पहुंचे और पहुँच कर उससे भी वही प्रश्न पूछा कि, भाई क्या कर रहे हो | उसने जवाब दिया ,पेट पाल रहा हूँ |उसके स्वरों में बेबसी और लाचारी झलक रही थी | संत मुस्कुराकर उठे थोडा आगे बढे, कुछ दुरी पर एक तीसरा मजदूर भी वही काम कर रहा था जो पत्थर तोड़ते तोड़ते मुह  से कुछ गीत भी गुनगुना रहा था | संत के प्रश्न दोहराने पर मजदूर के होठों में एक मुस्कान आई , बोला मंदिर बना रहा हूँ | भगवान् यहाँ बैठेंगे |
               यहाँ काम एक हो रहा है पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं, तीन अलग अलग मनोभावों को व्यक्त कर रही है | मनुष्य तीन तरह के होते हैं , कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सारी ज़िन्दगी केवल पत्थर तोड़ने का कार्य करते हैं | कुछ लोग हैं जो केवल पेट पाल कर रह जाते हैं |लेकिन वे लोग विरले होते हैं जो अपने जीवन को मंदिर बना लेते हैं | जिस मनुष्य के भीतर क्रोध भरा होगा , गुस्सा  भरा होगा उसका जवाब यही होगा की पत्थर तोड़ रहा हूँ | ऐसे लोग अपने जीवन में कुछ हासिल नही कर पाते| जो केवल गुज़ारे का साधन बना के चलते हैं वे अपने जीवन को समग्रता से पहचानते नही | लेकिन तीसरे लोग बड़े विरल पर विलक्षण होते हैं | ये वे होते हैं जो अपने जीवन के प्रति अहोभाव से भरे होते हैं | इनका दृष्टिकोण अपने जीवन के प्रति बड़ा सकारात्मक होता है | वे सच में अपने जीवन को एक मंदिर बना लेते हैं |